सोमवार, 1 अक्तूबर 2018

           "पलकों के कोर में मैं फस गया"

     चांदनी रात में एक बार तुझको देखा

     बादलों के आगोश में

     नैन मिला रही थी चांद से,

     शायद चांद भी छुप कर

     दीदार कर रहा था

     तुम्हारी आंखों में

     मैं भी बिन नासा के झूम गया

     लड़खड़ाते कदमों से तुमसे लिपट गया

     इस आंखों के जाम से

     मैं मयखाने को भूल गया 

 तेरी पलकों के कोर में मैं फस गया।

     मोती सी बूंदें जब

     तुम्हारी आंखों से बरसती है

     सावन की फुहार भी

     तुमसे मिलने को तरसती

     यह नाजुक दिल तुम से लिपट गया

 तेरी पलकों के कोर में मैं फिसल गया।

     चिलमन से निकलकर जब यू निहारती हो

     होठों से जब नाम मेरा पुकारती हो

     सच कहता हूं चांदनी का हुस्न भी

     गिर कर निखर गया

     तेरी पलकों के कोर में मैं फंस गया।

     दोनों  भौहों के बीच बिदिया लगाकर

     गालों को छूती बालियां से

     हुस्न को ललचाती हो

     इसी अदा पर मैं दीवाना बन गया

 तेरी पलकों के कोर में मैं फंस गया।

     थक कर जब तुम अंगड़ाइयां लेती हो

     नींद के आगोश से जब सोकर उठती हो

     अपने हाथों को उठाकर

     जुल्फों को संवारती हो

     इसी अदा पर मैं जीते जी मर गया

 तेरी पलकों  के कोर मे मैं फस गया।

     ये काजल तुम्हारी आंखों की

     कीमत नहीं देगी

     मैं बसा तुम्हारी आंखों में

     तो जीवन संवर गया

 तेरी पलकों की कोर में मैं फस गया।।

कविता "मन की राही"

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