गुरुवार, 26 मई 2022

कविता "मन की राही"

               
    

                            "मन की राही"
* मन की राही रे
   तू देख जरा पथ को।
   इन पथ फूल नहीं
   कांटों से यह बोया है
   मन की राही रे,
   तू देख जरा पथ को।।

 * इस पथ पर चलना है मुश्किल
    मंजिल बहुत विराना है
    सोच तुझे क्या करना है
    क्योंकि तुझे अभी चलना है।
    मन की राही रे,
    तू देख जरा पथ को।।

* यह पथ है लोभो का डेरा
   क्रोध इनका दीवाना है।
   ईश्या रूपी गांव बसा है
   छीन-झपट कर खाता है।।
   मन की राही रे,
   तू देख जरा पथ को।

* यहां की कानून बड़ी निराली
   मन की मर्जी से चलता है।
   ऊंच-नीच,जात-पात
   सभी में भेद-भाव रखता है।
    मन की राही रे,
   तू देख जरा पथ को।।

* तू जैसा बोया वैसा पाया
   अभी कुछ न बिगड़ा है।
   उठ पथ को तू साफ कर
   जिस पथ पर तुझे चलना है।
   मन की राही रे,
   तू देख पथ को।।

* इन सबसे से तुम नाता तोडो
   आगे की राह दिखाता हूं।
   कभी न रूकना कभी न थकना
   चाहे तूफान आ जाए,
   बढते रहना मंजिल की ओर
   लगेगा मंजिल सुहाना है।
    मन की राही रे,
    तू देख जरा पथ को।।
                                                -:केशव झा
  रचयिता-केशव झा 
   सोनवर्षा,बिहपुर,भागलपुर
   Mo-83 40 70 42 40
   काॅपीराइटर- स्वंय सुरक्षित 
नोट-                 इस रचना की नकल  ना लिखें ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Thanks for feedback

कविता "मन की राही"

                                                  "मन की राही" * मन की राही रे    तू देख जरा पथ को।    इन पथ फूल नहीं  ...